चरवाही

श्रृंखला 4

आत्मा और जीवन

पाठ दो – बाइबल पढ़ना

इफ- 1:17-कि हमारे प्रभु यीशु मसीह का परमेश्वर जो महिमा का पिता है, तुम्हें अपनी पूर्ण पहचान में ज्ञान और प्रकाशन की आत्मा दे।

कुल- 3:16-मसीह के वचन को अपने हृदयों में बहुतायत से बसने दो, समस्त ज्ञान सहित।

एक विश्वासी को प्रार्थना करने की आवश्यकता है; उसे बाइबल पढ़ने की भी आवश्यकता है। प्रार्थना की तुलना सांस लेने से कर सकते हैं और बाइबल पढ़ने की तुलना खाने से कर सकते हैं। दोनों का प्रत्येक विश्वासी द्वारा प्रतिदिन अभ्यास किया जाना चाहिए।

बाइबल की उत्पत्ति

बाइबल की उत्पत्ति परमेश्वर है_ यह परमेश्वर थे जिसने प्रकाशन के अपने वचनों को अपनी आत्मा के द्वारा पवित्रशास्त्र के लेखक के भीतर और बाहर सांस छोड़ा (2 तीम- 3:16)। जो सांस छोड़ी गयी न केवल वचन थे बल्कि आत्मा भी थी।

चूंकि बाइबल अपने आत्मा के द्वारा मनुष्य से परमेश्वर के अपने वचनों का सांस छोड़ना है, यह मनुष्य का परमेश्वर की ओर से, परमेश्वर का वचन बोलना है जब वे पवित्र आत्मा के द्वारा वहन किये गए थे (2 पत- 1:21)। इसलिए, पुराने नियम के कुछ संत जैसे कि भविष्यवक्ता, अगुवे, इस्राएलियों के बीच राजा और साथ ही साथ नए नियम के विभिन्न संत जैसे कि प्रेरित, मरकुस और लूका के द्वारा लिखी गई बाइबल, परमेश्वर से निकली है।

बाइबल की विषय-वस्तु

बाइबल की विषयवस्तु व्यापक और समावेशी दोनों है; इस विषयवस्तु के दो मुख्य पहलू सत्य और जीवन हैं। सत्य हमारे लिए विश्व की सभी वास्तविकताओं के प्रकाशन और ज्ञान को लाती है, जैसे कि परमेश्वर की वास्तविकता, मनुष्य की वास्तविकता, विश्व की वास्तविकता, वर्तमान युग, आने वाले युग और अनन्त युग के चीजों की वास्तविकता, और विशेष रूप से, परमेश्वर द्वारा नियुक्त मसीह और उनके द्वारा चुनी गयी कलीसिया की वास्तविकता। जीवन हमारा जीवन होने के लिए परमेश्वर का आना है ताकि हम नया जन्म पायें, बढ़ें, रूपांतरित हो जाएं, और मसीह के स्वरूप के अनुरूप हो जाएं, जो परमेश्वर को अभिव्यक्त करते हैं, ताकि हम परमेश्वर की अभिव्यक्ति बन सकें।

‘‘तेरा (पिता परमेश्वर का) वचन सत्य (वास्तविकता) है’’ (यूहन्ना 17:17)। प्रभु यीशु का यह वचन सूचित करता है कि बाइबल में परमेश्वर का वचन सत्य है_ हमारे प्राप्त करने के लिए यह स्वयं परमेश्वर और उसके गृह प्रबंध की वास्तविकता को प्रकट करता है।

प्रेरितों 5:20 में स्वर्गदूत ने, परमेश्वर के जीवन के वचन को प्रचार करने का आदेश देकर पतरस से बात की। जीवन के वचन बाइबल के वचन हैं जिन्हें प्रेरितों ने प्रचार किया। चूंकि वचन में जीवन शामिल है, वे जीवन आपूर्ति करने में सक्षम हैं, और यह जीवन स्वयं परमेश्वर है। यह साबित करता है कि बाइबल की मुख्य विषयवस्तु न केवल सत्य बल्कि जीवन भी है।

बाइबल को कैसे पढे़ं

चूंकि बाइबल परमेश्वर का वचन है, इसका स्वभाव दिव्य और आत्मिक है। हमें इसे अपने अस्तित्व के हर भाग के साथ पढ़ना चाहिए।

सबसे पहले,

इसे समझ के साथ पढ़ना

बाइबल पढ़ने में, हमें सबसे पहले मानवीय भाषा में लिखी गयी इसकी लिखित सामग्री को समझने के लिए और इसका अर्थ जानने के लिए अपने मन की समझ का उपयोग करना चाहिए (लूका 24:45)।

फिर इसे बुद्धिमानी के साथ पढ़ना

हमें बाइबल में परमेश्वर द्वारा प्रकट की गई दिव्य चीजों से संबंधित वचन को बुद्धिमानी के साथ समझने की आवश्यकता है (कुल- 3:16)। इफिसियों 1:17 भी हमें दिखाता है कि बुद्धिमानी हमारी आत्मा से जुड़ी हुई है। यह ज्ञान वह नहीं है जो स्वाभाविक रूप से हमारे पास है बल्कि वह है जो हम प्रार्थना के माध्यम से प्राप्त करते हैं। हमारी आत्मा में इस तरह की बुद्धिमानी हमारे मन की समझ की तुलना में अधिक गहरी और ऊंची है। हम अपने मन की समझ से बाइबल के अक्षर को समझते हैं, और हम अपनी आत्मा की बुद्धिमानी के द्वारा बाइबल में सत्य को समझते हैं।

अंत में,

इसे आत्मा से ग्रहण करना

इफिसियों 6:17-18 में हमें बताया गया है कि आत्मा में प्रार्थना करने के द्वारा परमेश्वर के वचन को ग्रहण करना है। यह हम से प्रकट करता है कि जब हम परमेश्वर के वचन को पढ़ते हैं और ग्रहण करते हैं तो हमें अपनी आत्मा का अभ्यास करने की भी आवश्यकता है। निस्संदेह, यह प्रार्थना के माध्यम से किया जाता है। इसलिए, बाइबल पढ़ने में, अपनी समझ से लिखित सामग्री के अर्थ को समझने और अपने ज्ञान के साथ लिखित सामग्री के सत्य को समझने के बाद, हमें पवित्रशास्त्रों में सत्यों को अपने अस्तित्व के सबसे गहरे भाग अर्थात, हमारी आत्मा में प्राप्त करने के लिए प्रार्थना के द्वारा हमारी आत्मा का प्रयोग करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, जब हम लिखित सामग्री को समझ लेते हैं और उसमें सत्य ग्रहण कर लेते हैं, तो फिर भी जो हमने समझा है और महसूस किया है उसे प्रार्थना में बदलना चाहिए ताकि यह हमारी आत्मा में सम्मिलित हो जाए, हमारे जीवन की आपूर्ति और हमारे आत्मिक अनुभव का आधार बन जाए।

प्रार्थना-अध्ययन

बाइबल पढ़ने का एक और सरल, आत्मिक, और सबसे फायदेमंद तरीका प्रार्थना-अध्ययन करना है। हम बाइबल की लिखित सामग्री को प्रार्थना के रूप में लेते हैं और इससे प्रार्थना-अध्ययन करते हैं। न केवल हम पढ़ते हैं और एकसाथ प्रार्थना करते हैं, या प्रार्थना करते हैं और पढ़ते हैं, पढ़ते और प्रार्थना करते हैं_ अपितु पढे जा़ने वाली लिखित सामग्री को हम वही प्रार्थना के शब्दों में बदलते हैं। कभी कभी हम प्रार्थना के द्वारा लिखित सामग्री को अपने ऊपर लागू कर सकते हैं। जितना ज्यादा हम इस प्रकार के प्रार्थना-अध्ययन को दोहरते हैं, उतनी ही उत्थान और मुक्त हमारी आत्मा बनती है और अधिक से अधिक, गहरा और समृद्ध लाभ हमें प्राप्त होता है।

बाइबल पढ़ने का समय

हम किसी भी समय पर बाइबल पढ़ सकते हैं और जब भी जरूरत हो तब ऐसा करना चाहिए। हालांकि, सामान्य रूप से बोलते हुए, किसी भी व्यक्ति या चीजों से संपर्क करने से पहले सुबह में पढ़ना सबसे अच्छा होता है, और विशेष रूप से पढ़ने को प्रार्थना से मिलाकर करना अच्छा होता है। इस प्रकार का समय बहुत लंबा नहीं होना चाहिए। सबसे उपयुक्त तरीका दस मिनट के लिए प्रार्थना करना और दस मिनट के लिए पढ़ना है। कभी-कभी पढ़ना और प्रार्थना एक साथ मिश्रित किया जा सकता है।

 

CHRIST IS THE WORD AND SPIRIT TOO

Study of the Word— The Word and the Spirit – 815

  • 1. Christ is the Word and Spirit too,
    And as the Spirit in the Word;
    And all the words He speaks to us
    Are life and spirit thus conferred.
  • 2. The Holy Word we have without,
    The Holy Spirit is within;
    The greatest gifts divine are these,
    That we may God enjoy therein.
  • 3. The Word the Spirit doth express,
    The Spirit its reality;
    They’re but two aspects of one thing
    And should not separated be.
  • 4. Whene’er the Spirit lights the Word
    The Word becometh life to us;
    When Word from Spirit is divorced,
    ‘Tis empty mental stimulus.
  • 5. When we the Word in spirit touch,
    As life the Spirit it becomes;
    The Spirit, when expressed from us,
    As words of life to others comes.
  • 6. Our spirit we must exercise
    To take the Word most inwardly,
    And then to give the Spirit forth;
    The two as one with us should be.
  • 7. Lord, may Thy Word in me become
    The Spirit as my life supply,
    And may Thy Spirit in Thy Word
    My true expression be thereby.