चरवाही
श्रृंखला 3
भरोसा और आज्ञाकारिता
पाठ चार – विश्वासियों को क्यों पीड़ित होना चाहिए?
2 कुर- 4:16-17-इसलिए हम साहस नहीं खोते, यद्यपि हमारे बाहरी मनुष्यत्व का क्षय होता जा रहा है, तथापि हमारे आन्तरिक मनुष्यत्व का दिन-प्रतिदिन नवीनीकरण होता जा रहा है। क्योंकि हमारा पलभर का यह हल्का-सा क्लेश एक ऐसी चिरस्थयी महिमा उत्पन्न कर रहा है जो अतुल्य है।
दो सृष्टियां-
पुरानी और नई
हर बचाये गये व्यक्ति का अनुभव कम से कम कुछ सबूत देता है कि परमेश्वर जीवित परमेश्वर है, लेकिन बचाये गये लोगों में से बहुत कम इस बात का अनुभव करते हैं कि जो परमेश्वर उनके अंदर है वह पुनरूत्थान का परमेश्वर है। अगर जीवित परमेश्वर और पुरूत्थान के परमेश्वर के बीच का भेद हमारे लिए स्पष्ट नहीं होता है, तो जब हम आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमारे अनुभव में कई समस्याएं उत्पन्न होंगी।
बाइबल दो सृष्टियों के बारे में बताती है, पुरानी और नई। दिव्य स्वभाव पुरानी सृष्टि में निवास नहीं करता और इसीलिए यह पुराना बन चुका है। जहाँ परमेश्वर है वहाँ हमेशा नवीनता है। ऊपर के यरूशलेम को नया यरूशलेम कहा जाता है क्योंकि यह परमेश्वर से परिपूर्ण है—यद्यपि पहली सृष्टि स्वयं परमेश्वर के द्वारा अस्तित्व में आयी, स्वयं परमेश्वर की अनुमति से यह मृत्यु से गुजरी ताकि पुनरूत्थान में यह दोहरे स्वभाव की सृष्टि के रूप में उत्पन्न हो सके, अर्थात, परमेश्वर और मनुष्य के स्वभाव को मिश्रित करते हुए।
नई सृष्टि
पीड़ा के माध्यम से
लायी गयी
यद्यपि पुरानी सृष्टि जीवित परमेश्वर के शक्तिशाली हाथों के द्वारा अस्तित्व में आयी है, वह खुद इसमें नहीं रहता है। यह उसके द्वारा सृजी गयी और यह उसकी शक्ति को दिखाती है लेकिन यह उसकी उपस्थिति को नहीं दिखाती। पुरानी सृष्टि नई में कैसे रूपांतरित हो सकती है? परमेश्वर के आने के द्वारा। लेकिन उसका आना कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह वह बिंदु है जहाँ पर एक बड़ी कठनाई उत्पन्न होती है। उसके लिए रास्ता बनाने के लिए पुरानी सृष्टि को तोड़ा जाना चाहिए। भाईयों और बहनों, पुनरूत्थान के परमेश्वर के लिए रास्ता बनाने के लिए आपके जीवन में सब कुछ को मृत्यु की सर्वोच्च परीक्षा से गुजरना चाहिए। अगर आप केवल जीवित परमेश्वर को जानते हैं, तो आपका ज्ञान बहुत ही वस्तुपरक होगा। परमेश्वर, परमेश्वर रहेगा और आप, आप रहोगे। आप को पुनरूत्थान के परमेश्वर को जानने की आवश्यकता है और यह केवल मृत्यु के माध्यम से है कि वह आपके जीवन में स्वयं के लिए एक रास्ता बना सकता है।
पीड़ा के माध्यम से
परमेश्वर का ही स्वभाव
मनुष्य में गठित होना
पीड़ा का महत्व क्या है? यह कि, जो तबाही यह पुरानी सृष्टि में लाती है वह पुनरूत्थान के परमेश्वर को उनके सृजन में स्वयं को प्रदान करने का मौका देती है, ताकि वे मृत्यु की प्रक्रिया से उसके गठन में दिव्य तत्व के साथ निकल सकते हैं। इस विश्व में पीड़ित होने का प्राथमिक उद्देश्य, विशेषकर जब यह परमेश्वर की संतानों से संबंधित है, यह है कि इसके द्वारा स्वयं परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य के स्वभाव में गठित हो सकता है। यद्यपि हमारा बाहरी मनुष्यत्व नष्ट होता जाता है, तौभी हमारा भीतरी मनुष्यत्व दिन-प्रतिदिन नया होता जाता है (2 कुर- 4:16)। एक बाहरी नष्ट होने की प्रक्रिया के माध्यम से एक अंदरूनी प्रक्रिया स्थान ले रही है जो हमारे जीवन में एक नया घटक जोड़ रही है।
पीड़ा के माध्यम से
मनुष्य का निजी तौर पर
पुनरूत्थान के परमेश्वर को
अनुभव करना
प्यारे भाईयों और बहनों, कठनाई और दबाव के माध्यम से एक दिव्य तत्व हमारे अस्तित्व में गठित होता है, ताकि हम बेरंग मसीही होना बंद कर दें, पर एक स्वर्गीय रंग को रखें जिसकी पहले कमी थी। इस संसार में पीड़ा जो भी प्रभाव लाती है, वह प्रासंगिक है, यह प्राथमिक है उन लोगों को पुनरूत्थान के परमेश्वर के अरचित जीवन में लाना, जो जीवित परमेश्वर के रचित जीवन के धारक हैं। मृत्यु के अनुभवों में, जो पीड़ा के द्वारा आती है, सृजन का जीवन रचनहार के जीवन के साथ मिश्रित हो सकता है। हम इस प्रकार के सख्त अनुभव के बिना जीवित परमेश्वर को जान सकते हैं लेकिन केवल मृत्यु के द्वारा ही हम पुनरूत्थान के परमेश्वर के अनुभवी ज्ञान में आ सकते हैं।
गीत # 377
1 अगर जिस पथ मैं चलूं
ले जाएँ क्रूस तक
जो मार्ग तूने चुना
ले जाएँ दुःख तक
हो अब प्रतिकरण
हर दिन हर समय
छायारहित, मेल हो
तेरे साथ प्रभु
2 जब भौतिक सुख हो कम
दे अधिक स्वर्ग का
करे आत्मा स्तुति
चाहे हृदय चीरे
सांसारिक बंधनें
टूटे आज्ञा पे
गाँठ लगा जो बाँधो
करीब, मधुर हो
3 गर पथ हो तनहा
भर दे मुस्कान से
हो मेरा हमराही
धरती पर कुछ पल
निस्स्वार्थ मैं जीउॅफ़ंगा,
तेरी कृपा से
हो मैं शुद्ध माध्यम
तेरे जीवन की