चरवाही

श्रृंखला 6

कलीसिया जीवन

पाठ दस – जीवनीय समूह

प्रे- 2:46-47-वे एक मन होकर दिन-प्रतिदिन मन्दिर में जाते और घर-घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सीधाई से एक साथ भोजन किया करते थे। 47वे परमेश्वर की स्तुति किया करते थे। सब लोग उनसे प्रसन्न थे और जो उद्धार पाते जाते थे, उनको प्रभु प्रतिदिन उनमें मिला दिया करता था।

जीवित समूहों का गठन करना दूसरों के साथ

अपने संपर्क में विस्तृत और

घनिष्ठ संगति की शुरुआत करना

जीवनीय समूहों का होना एक प्रकार के आंदोलन के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। जीवित होना, जीवित किया जाना, यह एक अत्यंत व्यक्तिगत मामला है। जीवित होना सिर्फ तब संभव है, जब आप खुद प्रभु के द्वारा दबाये जाते हैं कि इस मामले में उसे उत्सुकता के साथ और पूर्ण रूप में खोजें। जीवित किये जाने के बाद, इस मामले को एक आंदोलन के रूप में प्रोत्साहित या बढ़ावा देने के लिए अनेक संतों को इकटठा नहीं करना चाहिए। जीवित किये जाने के बाद, आपको इतने सारे संतो के बीच में किससे संपर्क करना है इसके बारे में प्रभु की आगुवाई को खोजने की एक ही चीज करनी चाहिए। दूसरों से संपर्क करने और उनके साथ संगति करने के लिए, दो या तीन से ज्यादा नहीं, आपको पूरी तरह से प्रभु की अगुवाई और उनका मार्गदर्शन का भी पालन करना होगा। आपको आपके संपर्क के साथ एक विस्तृत और घनिष्ठ संगति शुरु करनी है और यह आपको और आपके संपर्क को उत्सुकता की प्रार्थनाओं में ले जाएगा, जो प्रभु द्वारा सम्मानित किया जाएगा।

संपूर्ण अंगीकार

और समर्पण करना

आपको अपने संपर्क को प्रभु से संपूर्ण अंगीकार करने के लिए अगुवाई करनी है और उसे, जैसे आप ने किया है वैसे ही कोई भी दाम देकर कीमत चुकाकर, सहायता करनी है। इस मार्ग द्वारा एक छोटा समूह सहज तरीके से अस्तित्व में आएगा, जो प्रभु के हितों के लिए जीवनीय जीवित, सजीव ओर सक्रिय होंगे। जब ऐसी एक जीवित समूह की गिनती दस या अधिक में बढ़ जाती है, आपको इसे दो समूहों में बाँटना होगा और प्रत्येक अंग को आदेश देना चाहिए कि आप पूरे समय जो भी करते आ रहे थे उसी मार्ग पर जीवित किये जाने का अभ्यास करते रहो।

निरंतर प्रार्थना करना

क्योंकि आप जीवित किये गए हैं और ऐसे जीवनीय समूहों को उत्पन्न किया है, आपको कलीसिया और अगुवाई करने वालों के लिए प्रार्थना करनी है। जैसा प्रभु अगुवाई देता है, कलीसिया की सभाओं में आपको गवाही देनी चाहिए, परंतु यह न्याय करने या प्रोत्साहित या बढ़ाने के तरीका से नहीं होना चाहिए। कलीसिया की सभा और सेवा की रीति को बदलने की सोच से बचे रहना। बदलावों का आंदोलन शुरू न करें। प्रार्थना की जरूरत है, परंतु किसी भी उग्र बदलाव की सोच को दूर रखना है। जीवित होने के बाद किसी को तुच्छ ना समझू , विशिष्ट रूप में अगुवाई करनेवालों, बुजुर्गों, और उन लोगों को जो दूसरों को सहयता करते आए हैं। निर्बलों, उदासीन और वे जो आत्मिक चीजों के लिए किसी चिंता के बिना हैं उनका तिरस्कार न करें। निष्कर्ष में, आपके दृष्टिकोण और अभ्यास के अनुसार कलीसिया को पूरी तरह एकसमान और एकीकृत देखने की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। कलीसिया मनुष्य के कार्य द्वारा बनावटी नही है, परंतु विश्वासियों में मसीह की वृद्धि के साथ दिव्य जीवन की वृद्धि में जैविक है।

I THIRSTED IN THE BARREN LAND OF BABYLON

The Church—As Our Home and Rest – 1234

1 I thirsted in the barren land of Babylon
And nothing satisfying there I found;
But to the blessed local church one day I came,
Where springs of living water do abound.

Drinking at the springs of living water,
Happy now am I,
My heart they satisfy;
Drinking at the springs of living water,
O wonderful and bountiful supply!

2 How sweet the living water from the hills of God,
It’s flowing in and flowing out of me;
O now I’ve found the place for which I long had sought,
Where there is life and life abundantly.

3 O brother, won’t you gather in the local church?
A fountain here is flowing deep and wide.
The Shepherd now would bring you to the local church,
Where thirsty spirits can be satisfied.