चरवाही

श्रृंखला 5

सत्य को जानना

पाठ चार – मानवीय आत्मा

जकर्याह 12ः1-इस्राएल के विषय में यहोवा का कहा हुआ भारी वचनः यहोवा जो आकाश का ताननेवाला, पृथ्वी की नींव डालनेवाला और मनुष्य की आत्मा का रचनेवाला है।

मानवीय आत्मा की

रचना

नीतिवचन 20:27 कहता है, ‘‘मनुष्य की आत्मा यहोवा का दीपक है।’’ साधारणतः इब्रानी भाषा में आत्मा के लिए शब्द रूआक है लेकिन यहाँ इब्रानी भाषा में आत्मा के लिए शब्द नेशामा है। नेशामा वही शब्द है जो उत्पत्ति 2:7 में श्वास के लिए इस्तेमाल किया गया है। नीतिवचन 20:27 में इसका अनुवाद ‘‘आत्मा’’ है। इसके द्वारा हम देख सकते हैं कि मनुष्य की रचना में जीवन का श्वास जो परमेश्वर द्वारा मनुष्य में फूंका गया था वह मनुष्य की आत्मा थी। मनुष्य की आत्मा हमारे अंदर कुछ है जो परमेश्वर के जीवन और परमेश्वर की आत्मा से बहुत करीब है। यह इंगित करता है कि मनुष्य की आत्मा परमेश्वर के जीवन और परमेश्वर के आत्मा को ग्रहण करने के लिए और समाने के लिए रचा गया था। आखिरकार, 1 कुरिन्थियों 6:17 कहता है, ‘‘और जो प्रभु की संगति में रहता है, वह उसके साथ एक आत्मा हो जाता है।’’ हमारी आत्मा प्रभु के साथ एक आत्मा बन सकती है क्योंकि यह जीवन के श्वास के साथ रचा गया था जो परमेश्वर के जीवन और परमेश्वर के आत्मा से बहुत करीब है।

मानवीय आत्मा का

महत्व

जकर्याह 12:1 कहता है कि यहोवा आकाश का ताननेवाला है, पृथ्वी की नींव डालनेवाला है और मनुष्य की आत्मा का रचनेवाला है। कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि ये तीन चीजें-आकाश, पृथ्वी और मनुष्य की आत्मा-अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए परमेश्वर की सृष्टि में महत्वपूर्ण हैं। आकाश पृथ्वी के लिए बनाया गया है, पृथ्वी मनुष्य के लिए बनायी गयी है और मनुष्य परमेश्वर के लिए बनाया गया है।

जकर्याह ‘‘मनुष्य’’ को नहीं बल्कि ‘‘मनुष्य की आत्मा’’ को संदर्भित करता है। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य की आत्मा वहीं अंग है जो परमेश्वर को अंदर ले सकता है और परमेश्वर का जीवन और परमेश्वर की आत्मा को आनंद कर सकता है और परमेश्वर के आत्मा के साथ एक हो सकता है। यही कारण है कि मनुष्य की आत्मा उस हद तक उतना महत्वपूर्ण और मुख्य बन गयी है, कि वह आकाश और पृथ्वी के साथ स्थान पाती है।

मानवीय आत्मा के

तीन भाग

विवेक

एक आयत या कुछ आयतों को लेना आसान नहीं है जो हमें सीधे रूप से दिखाती हैं कि विवेक हमारी आत्मा का एक भाग है। हमें रोमियों 8:16 के साथ 9:1 की तुलना करनी चाहिए। रोमियों 9:1 कहता है कि हमारा विवेक पवित्र आत्मा के साथ गवाही देता है और 8:16 कहता है कि आत्मा हमारी आत्मा के साथ गवाही देती है। ये दो आयत जोर से साबित करती हैं कि हमारा विवेक हमारी आत्मा का एक भाग है। 1 कुरिन्थियों 5:3 में पौलुस ने एक पापमय व्यक्ति का न्याय अपनी आत्मा में किया। न्याय करना पाप की निंदा करना है और वह मुख्य रूप से विवेक का कार्य है। भजन 51:10 ‘‘मेरे भीतर सही आत्मा’’ के बारे में बताता है। यह वह आत्मा है जो सही है। सही और गलत का फर्क जानना विवेक से संबंधित है, तो यह आयत दिखाती है कि विवेक आत्मा में है। आत्मा के भाग के रूप में विवेक के कार्य को दिखाने के लिए, भजन 34:18 और व्यवस्थाविवरण 2:30 कुछ अन्य आयत हैं जिन्हें हम इस्तेमाल कर सकते हैं।

सहभागिता

हमारी मानव आत्मा का एक और भाग या कार्य सहभागिता है। यूहन्ना 4:24 कहता है, ‘‘परमेश्वर आत्मा है और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा—से आराधना करें।’’ यह आराधना एक प्रकार की सहभागिता, एक प्रकार का संपर्क है। रोमियों 1:9 में पौलुस कहता है कि उसने परमेश्वर की सेवा अपनी आत्मा में की ओर 7:6 में उसने कहा कि उसने आत्मा की नवीनता में परमेश्वर की सेवा की। इफिसियों 6:18 कहता है कि हर समय आत्मा में प्रार्थना करो। प्रार्थना करना भी परमेश्वर के साथ सहभागिता रखना है। लूका 1:47 में मरियम ने कहा कि उसकी आत्मा परमेश्वर में हर्षित अर्थात आनंदित हुई। यह निश्चित रूप से एक प्रकार का सहभागिता है। रोमियों 8:16 और 1 कुरिन्थियों 6:17 दिखाता है कि हमारी आत्मा प्रभु के साथ एक आत्मा है। यह एकता भी एक प्रकार की सहभागिता है। ऊपर की सभी आयतें यह साबित करने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है कि हमारी आत्मा में कुछ है जिसे सहभागिता कहा जाता है।

अंतर्ज्ञान

अंतर्ज्ञान भी मनुष्य की आत्मा का एक भाग है। पहला कुरिन्थियों 2:11 कहता है कि मनुष्य की आत्मा मनुष्य के कार्यों को जानता है। आत्मा वह जान सकता है जो प्राण नहीं जान सकता। आयत 14 और 15 कहता है कि एक प्राणिक मनुष्य परमेश्वर के बातों को ग्रहण नहीं कर सकता लेकिन आत्मिक मनुष्य कर सकता है। कारण और परिस्थिति की परवाह किए बिना हमारी आत्मा में प्रत्यक्ष अनुभूति अंतर्ज्ञान है। अंतर्ज्ञान परमेश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति और परमेश्वर से प्रत्यक्ष ज्ञान है। मरकुस 2:8, मरकुस 8:12 और यूहन्ना 11:33 अन्य आयत है जो दिखाती है कि अंतर्ज्ञान मानव आत्मा का भाग है। ये आयत दिखाती हैं कि मानव आत्मा में परमेश्वर और आत्मिक बातों को जानने के लिए प्रभेद की एक प्रत्यक्ष अनुभूति है। यह प्रत्यक्ष अनुभूति अंतर्ज्ञान है।

इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि विवेक गलत और सही का प्रभेद करने में कार्य करता है, सहभागिता परमेश्वर को संपर्क करने में कार्य करती है और अंतर्ज्ञान परमेश्वर और परमेश्वर की इच्छा अर्थात परमेश्वर का इरादा जानने के लिए कार्य करता है।

(मानवीय आत्मा के भागों की एक पूर्ण समझ के लिए परमेश्वर के गृह प्रबंध का अध्याय 6 को देखे।)

मानवीय आत्मा का कार्य

परमेश्वर से संपर्क करना

यूहन्ना 4:24 दिखाता है कि मानव आत्मा का कार्य परमेश्वर को संपर्क करना है।

परमेश्वर को ग्रहण करना

यहेजकेल 36:26 कहता है कि परमेश्वर हमें एक नया हृदय और एक नई आत्मा देता है। नया हृदय परमेश्वर से प्रेम करने के लिए और परमेश्वर को खोजने के लिए है और नई आत्मा परमेश्वर को ग्रहण करने के लिए है।

परमेश्वर को समाहित करना

दूसरा तीमुथियुस 4:22 कहता है, ‘‘प्रभु तेरी आत्मा के साथ रहे।’’ हमारी आत्मा वह जगह है जहाँ परमेश्वर हमारे अंदर रहता है, इसलिए हमारी आत्मा परमेश्वर का पात्र है।

प्रभु के साथ एक आत्मा होने के लिए

मानव आत्मा एक उद्देश्य के लिए रचा गया था। परमेश्वर ने मनुष्य के इस अंग को रचा ताकि मनुष्य प्रभु के साथ एक आत्मा हो सके। पहला कुरिन्थियों 6:17 कहता है, ‘‘और जो प्रभु की संगति में रहता है, वह उसके साथ एक आत्मा हो जाता है।’’ यह सम्पूर्ण बाइबल में सबसे मुख्य आयत हो सकती है। रोमियों 8:16 कहता है कि दिव्य आत्मा हमारी मानवीय आत्मा के साथ गवाही देता है। अब ये दो आत्मा एक हो गई हैं।

आत्मा के द्वारा

और आत्मा के अनुसार चलना

गलातियों 5:16 और 25 हमें आत्मा के द्वारा चलने का आदेश देता है और रोमियों 8:4 कहता है कि हमें आत्मा के अनुसार चलने की जरूरत है। प्रकाशितवाकय 1:10 में प्रेरित पौलुस ने कहा कि वह प्रभु के दिन में आत्मा में था। यह दिखाता है कि हमें आत्मा में एक जीवन रखने की जरूरत है। यूहन्ना एक मनुष्य था जो आत्मा में था। इसका अर्थ है कि हमें आत्मा में जीना चाहिए।

हम सभी को मानवीय आत्मा की एक मजबूत समझ होनी चाहिए। मानवीय आत्मा से संबंधित सत्य प्रभु की पुनःप्राप्ति में कई शिक्षाओं का बुनियादी तत्व है। यदि संतो को मानवीय आत्मा के बारे में पर्याप्त ज्ञान में नहीं लाया जाता है, तो वे सभी आत्मिक बातों की समझ में थोड़ा कमजोर होंगे।

 

GOD’S GLORIOUS SUBSTANCE SPIRIT IS

Experience of God— By Exercising the Spirit – 611

1. God’s glorious substance Spirit is,
His essence, holy and divine;
To contact God and Him enjoy,
His Spirit I must touch with mine.

2. The spirit is the innermost,
The part of man most deep and real;
If he would contact God in life,
‘Tis with the spirit he must deal.

3. The worship which the Father seeks
Is in the spirit’s strength alone;
His Spirit into man’s would come,
That His and man’s may thus be one.

4. When Spirit unto spirit calls
The two commingle and are one;
Man’s spirit is the Spirit’s home,
The Spirit doth man’s life become.

5. Man’s spirit must God’s Spirit touch
If in God’s fulness he would live;
‘Tis only with the spirit thus
That he to God may worship give.

6. In ministry and fellowship
Man to the spirit we must bring;
All ministry should turn to prayer,
Spirit to spirit answering.

7. In spirit we must pray and serve,
In spirit touch the life divine,
In spirit grow, in spirit build,
That Christ thru us may fully shine.

8. Lord, to the spirit I would turn
And learn to truly contact Thee;
Thy Spirit thus will flow with mine
And overflow eternally.