चरवाही

श्रृंखला 2

उद्धार पाने के बाद

पाठ दस – समर्पण

1 कुर- 6:19-20 क्या तुम नहीं जानते कि तुम में से प्रत्येक की देह प्वित्र आत्मा का मंदिर है, जो तुम में है, और जिसे तुमने परमेश्वर से पाया है, और कि तुम अपने नहीं हो? क्योंकि तुम मूल्य देकर खरीदे गये होः इसलिए अपने शरीर के द्वारा परमेश्वर की महिमा करो।

2 कुर- 5:14-15 क्योंकि मसीह का प्रेम हमें विवश करता है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब एक सब के लिए मरा, तो सब मर गए। और वह सब के लिए मरा कि वे जो  जीवित हैं, आगे को अपने लिए न जीएं  परंतु उसके लिए जिए, जो उनके लिए मरा और फिर जी उठा।

समर्पण का आधार

प्रभु के लिए हमारे समपर्ण का आधार यह है कि, चूंकि उसने हमें मूल्य के रूप में अपने लहू से खरीदा है (प्रक- 5:9), हम उनके खरीदे गए दास बन गए हैं—-हम अपने नहीं हैं, अपितु प्रभु के हैं। यह प्रभु हैं, हम नहीं, जिसका हम पर अधिकार है।

समर्पण का प्रयोजन

हम खुद को प्रभु के लिए समर्पित करते हैं क्योंकि उसका प्रेम हमें सीमित और विवश करता है। उनका प्रेम हमें मजबूर करता है कि हम उनके लिए अपने आप को समर्पित करने के सिवाय कुछ और नहीं कर सकते हैं। क्योंकि वह हमारे बदले में मरा, हम सब मर गये; इसलिए हमें मरने की कोई जरूरत नहीं है। इसके अलावा, वह मरा कि हम उसको जीने के लिए उनका जीवन रख सकें। ऐसा प्रेम हमें उससे प्रेम करने और अपने आप को उसके लिए समपर्ण करने को मजबूर और विवश करता है। यह समपर्ण उनके महान प्रेम के लिए हमारी क”तज्ञता और चुकौती है–वह अपने प्रेम के कारण हमारे लिए मरा, और यह प्रेम हमारे लिए प्रेरणा है कि हम अपने आप को उसके लिए समर्पित करें।

समर्पण का

महत्व

जब हम अपने आप को प्रभु के लिए समर्पित करते हैं, तो हम, पुराने नियम के लोगों के विपरीत, जो प्रभु के लिए मृत बलिदान चढ़ाते थे, अपने आप को उनके लिए एक जीवित बलिदान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक जीवित बलिदान के रूप में जो प्रस्तुत किया गया है, हम पवित्र हैं अर्थात् हमने स्वयं को प्रभु के लिए अलग किया है ताकि वह हमें उपयोग कर सके और हम परमेश्वर के हृदय की इच्छा को संतुष्ट करते हुए, उसके लिए अति प्रसन्न हैं (रो- 121)।

समर्पण का उद्देश्य

प्रभु के लिए हमारे समपर्ण का उद्देश्य उसको जीना है। उसको जीना उसके लिए जीने से उच्च है। जब हम उसके लिए जीते हैं, हम और वह फिर भी दो हो सकते हैं, लेकिन जब हम उसे जीते हैं, हम और वह एक बन जाते हैं। जब हम उसे जीते हैं, तो हम उसे न केवल अपने जीवन के रूप में बल्कि अपने व्यक्ति के रूप में भी लेते हैं। हमारे जीने और कार्य सब में, हमें उनके साथ सहयोग करना चाहिए और उन्हें खुद को हमारे द्वारा जीने की अनुमति देनी चाहिए (2 कुर- 5:15; रो- 12:1; 1कुर- 6:20)।

समर्पण का परिणाम

प्रभु के लिए हमारे समपर्ण का पहला परिणाम यह है कि व्यावहारिक रूप से हम प्रभु के द्वारा खरीदे गये दास बन जाते हैं, जो सभी चीजों में उसके अधिकार के अधीन है (1 कुर- 7:22-23)।

हम परमेश्वर की ढलाई के तहत उसकी कारीगरी है, जैसे कि कुम्हार के हाथों से मिट्टी का बर्तन ढाला जाता है (यश- 64:8)। प्रभु के लिए हमारे समपर्ण का दूसरा परिणाम यह है कि हमें स्वत्रंत रूप से ढालने के लिए प्रभु के पास हमारी सहमति है (इफ- 2:10)।

जब हम अपने आप को और अपने अंगों को प्रभु के लिए प्रस्तुत करते हैं, तो फिर भी एक और परिणाम है;  अर्थात् हमारे अंग धार्मिकता के लिए हथियार और दास बन जाते हैं ताकि पवित्रता के लिए, हम पाप से मुक्त हो सकें, अब पाप के द्वारा प्रभुता नहीं है (रो- 6:13-14,19)।

पुराने नियम में एक होमबलि के बलिदान का परिणाम यह था कि होमबलि लोगों के सामने राख और परमेश्वर के लिए एक मीठी सुगंध बन गयी। यदि हम अपने आप को प्रभु के लिए एक जीवित होमबलि के रूप में प्रस्तुत करते हैं, और हम उसके लिए वास्तव में विश्वासयोग्य हैं, तो हम मनुष्यों के सामने राख के समान और परमेश्वर के लिए एक मनोहर सुगंध होंगे (लैव- 1:9)।

प्रभु के लिए हमारे समपर्ण का पूर्ण उद्देश्य परमेश्वर की महिमा करना है, अर्थात् हमारे द्वारा परमेश्वर को जीने और उसकी महिमा के प्रकटीकरण के रूप में अभिव्यक्त करने के लिए अनुमति देना है (1 कुर- 6:20)।

वेदी पर आग

जलती रहेगी

हमें एहसास होना चाहिए कि सिर्फ एक बार अनुभव करने के द्वारा जीवन के किसी भी अनुभव के शिखर पर पहुंचना संभव नहीं है। हमें लगातार आगे बढ़ने की जरूरत है, ताकि हमारा अनुभव जब तक परिपक्वता की अवस्था में नहीं पचहुंता है, धीरे-धीरे बढ़ेगा और पूर्ण हो जाएगा।

जब हम पहली बार अपने आप को समर्पित करते हैं, तो हमारा अनुभव मां के गर्भ में भ्रूण के जैसा होता है कोई कान, आंख, मुंह और नाक को अलग नहीं कर सकता है। जैसे हम जीवन में बढ़ते हैं, हालांकि, समपर्ण के अनुभव से संबंधित ये पांच अंग धीरे-धीरे हम में आकार लेते हैं। तब हम निश्चित रूप से महसूस करते हैं कि हमें परमेश्वर ने खरीदा है और हमारे सभी अधिकार उसके हाथ में हैं। हम उसके प्रेम के कैदी बन जाते हैं क्योंकि उसका प्यार हमारे हृदयों को छेद चुका है। हम सचमुच एक बलिदान बन जाते हैं, जो परमेश्वर के आनंद और संतुष्टि के लिए वेदी पर रखे जाते हैं। हम वह व्यक्ति होंगे जिन पर परमेश्वर के द्वारा पूरी तरह से कार्य किया गया है और फिर उसके लिए कार्य करने में सक्षम हैं। हमारा भविष्य वास्तव में एक मुट्ठी भर राख के रूप में होगा। परमेश्वर से बाहर भागने के हमारे सभी तरीकों को काट दिया जाएगा; परमेश्वर ही हमारा भविष्य और हमारा रास्ता होगा। उस समय पर हमारे समपर्ण का अनुभव वास्तव में परिपक्व हो जाएगा। हम सब प्रभु के अनुग्रह से, पीछा करके एक साथ आगे चल सकते हैं।

Consecration-

Surrendering All to the Lord

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1   Take my life, and let it be
Consecrated, Lord, to Thee;
Take my moments and my days,
Let them flow in ceaseless praise,
Let them flow in ceaseless praise.

2   Take my hands, and let them move
At the impulse of Thy love;
Take my feet and let them be
Swift and beautiful for Thee,
Swift and beautiful for Thee.

3   Take my voice, and let me sing
Always, only, for my King;
Take my lips, and let them be
Filled with messages from Thee,
Filled with messages from Thee.

4   Take my silver and my gold;
Not a mite would I withhold;
Take my intellect, and use
Every power as Thou shalt choose,
Every power as Thou shalt choose.

5   Take my will, and make it Thine;
It shall be no longer mine.
Take my heart; it is Thine own;
It shall be Thy royal throne,
It shall be Thy royal throne.

6   Take my love; my Lord, I pour
At Thy feet its treasure-store.
Take myself, and I will be
Ever, only, all for Thee,
Ever, only, all for Thee.